03 अक्टूबर 2024 : हरियाणा चुनाव में जो भी नारे गढ़े और लगाए जाएं यहां जाट और दलित वोटरों की अनदेखी मुमकिन नहीं है. 1966 में राज्य के गठन से बाद से हरियाणा में कुल 33 मुख्यमंत्री जाट समुदाय से ही बने हैं. महज चार मौके ही ऐसे आए जब दूसरे समुदाय के लोगों को राज्य की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठने का मौका मिल सका. राज्य में विधान सभा की कुल 90 सीटें हैं इनमें से कम से कम 36 सीटों पर जाट वोटरों की ही हनक रहती है. विश्लेषकों की माने तो यहां 26 से 28 फीसदी वोटर जाट समुदाय के हैं.

बीजेपी के प्रयोग
बीजेपी ने अपने चुनाव के मुद्दे अलग रखे तो यहां के मुख्यमंत्री भी जाट की जगह दूसरे समुदाय का दिया. पार्टी ने पहले बिश्नोई समुदाय के मनोहर लाल खट्टर को सीएम बनाया तो उन्हें बदला भी इसी समुदाय के नायब सिंह सैनी से. ये भी ध्यान रखने वाली बात है कि कांग्रेस भी ऐसा प्रयोग भजन लाल के साथ कर चुकी है, लेकिन कांग्रेसी जाट नेता भुपेंद्र सिंह हुड्डा ने न सिर्फ भजन लाल को पार्टी बल्कि हरियाणा की राजनीति से भी दरकिनार कर दिया था. हरियाणा में जाट वोटरों की संख्या जिस तरह से बड़ी है, उसे देख कर कहा जा सकता है कि देश के बहुत सारे प्रदेशों को अगर समझा जाय तो वहां किसी एक समुदाय के वोटरों की इतनी बड़ी ताकत नहीं है.

पश्चिमी यूपी के जाट और हरियाणा के हालात
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी जाट इसी तरह से ताकतवर मतदाता हैं. वहां जाटों और मुसलमानों का कई बार तालमेल हो जाता है. उस स्थिति में उनका फैसला ही निर्णायक होता है. यही आलम हरियाणा में भी है. जाट और दलित मिल जाते हैं तो वे भी निर्णायक स्थिति में आ जाते हैं. इस तुलना की एक वजह भी है. दोनों जगहों पर जाटों के पास खेत हैं. पश्चिमी यूपी में जाटों के खेतों में मुस्लिम खेतिहर मजदूर के तौर पर काम करते हैं तो हरियाणा में दलित उनके खेतों पर काम करते हैं. हरियाणा में दलित मतदाता 20 से 22 फीसदी माने जाते हैं. हालांकि मंडल के बाद ऐसे मौके कम आए हैं जब जाट और दलित मिल कर वोट करें.

देवीलाल और बंशीलाल के पोलिटिकल बेस पर हुड्डा का दावा
कभी इसी ताकत के भरोसे देवीलाल और वंशीलाल हरियाणा के एकछत्र नेता हुए. अब उसी देवीलाल के उत्तराधिकारी खुद तो अपने को जाटों का असली नेता बताते हैं लेकिन जमीनी हालत अलग है. ठीक वैसे ही जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चरण सिंह के वारिसों के साथ हुआ. हरियाणा के जाटों और दलितों को एकजुट करके भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने हरियाणा में दस साल अपनी सरकार चलाई. इस बार भी उनकी निगाह सीएम की कुर्सी पर है और वे अपने इसी समीकरण पर यकीन करके चल रहे हैं. अगर पार्टी में जो गुटबंदी अभी दिख रही है उसका प्रभावी असर नहीं पड़ा तो निश्चित तौर पर इसका फायदा फिर हुड्डा और कांग्रेस को हो सकता है. लेकिन पार्टी के एक और जाट नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला और कुमारी सैलजा के तेवर देखते हुए इसकी संभावना कम ही दिख रही है. नए और लोकल मुद्दों को लेकर आम आदमी पार्टी क्या कर पाती है, फिलहाल इस बारे में बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता. जबकि चौटाला परिवार खुद अपने कलह में अभी भी फंसा ही दिखता है.

इधर बीजेपी की बात करे तो उसके पास फिलहाल, जो जाट नेता हैं उन्हें पार्टी ने उस तरह आगे नहीं रखा है जैसा कांग्रेस में दिख रहा है. इधर बीजेपी के शासन में एक और फैक्टर महत्वपूर्ण हो कर उभरा है. चुनाव में जमीन के कारोबारियों का असर. दिल्ली से पूरी तरह से सटे हरियाणा में रीयल स्टेट का इस तरह से कारोबार होने लगा है कि बहुत सारे लोग मजाक में कहते हैं हरियाणा स्टेट की जगह रीयल स्टेट बन गया है. ऐसे लोगों को बीजेपी अधिक ठीक लगती है. इसकी बड़ी वजह है कि केंद्र में बीजेपी की सरकार है. डबल इंजन की सरकार होने पर इन लोगों को भी ‘सुविधा’ होती है. ये भी बहुत रोचक है कि हरियाणा ने लोकसभा में जिस पैटर्न पर वोटिंग की है उसी पैटर्न पर विधान सभा में भी हरियाणा के मतदाता वोटिंग नहीं करते रहे हैं.

Bharat Baani Bureau

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