17 सितंबर 2025 (भारत बानी ब्यूरो ) कुछ प्राइवेट अस्पताल और बीमा कंपनियां लंबे समय से कैशलेस सेवाओं और रिफंड रेट्स को लेकर भिड़ती रही हैं। हाल ही में यह विवाद तब तेज हुआ जब इंश्योरेंस कंपनी Niva Bupa ने 16 अगस्त को मैक्स अस्पतालों में कैशलेस सेवा रोक दी। इसके कुछ दिन बाद Bajaj Allianz और Care Health के मामलों में भी अस्पतालों ने कैशलेस हॉस्पिटलाइजेशन रोकने की सलाह दी। यह टकराव आठ दिन तक चला और बाद में आंशिक समाधान हुआ।

कॉमन इम्पैनलमेंट प्रोग्राम की वजह से विवाद

बीमा कंपनियों और अस्पतालों के बीच मुख्य कारण है कॉमन इम्पैनलमेंट प्रोग्राम, जिसे कैशलेस इलाज आसान बनाने के लिए शुरू किया गया था। इस योजना का उद्देश्य था कि बीमाधारक देशभर के चुनिंदा अस्पतालों में कैशलेस इलाज करवा सकें। लेकिन छोटे अस्पतालों का कहना है कि इस वजह से उनकी बातचीत की शक्ति (negotiating power) कम हो गई है और उन्हें नुकसान हो रहा है।

कॉमन इम्पैनलमेंट प्रोग्राम में बीमा कंपनियां तय करती हैं कि इलाज के लिए कितना पैसा मिलेगा। बड़े अस्पताल अपनी मांग मनवा सकते हैं, लेकिन छोटे अस्पतालों के पास ऐसी Negotiating power नहीं होती। बीमा कंपनियों द्वारा तय किए गए रेट छोटे अस्पतालों के लिए अक्सर पर्याप्त नहीं होते। इसका मतलब है कि इलाज करने के बाद उनका मुनाफा कम होता है।

मेडिकल खर्च और महंगाई

मेडिकल खर्च लगातार बढ़ रहा है, जिससे मरीजों और बीमा कंपनियों दोनों की परेशानी बढ़ गई है। बीमा कंपनियां कहती हैं कि महंगाई 14–15% है, जबकि अस्पताल इसे कम मानते हैं। अस्पतालों का कहना है कि बीमा कंपनियों के अपने खर्च भी कीमत बढ़ने का कारण हैं। एक अस्पताल अधिकारी ने बताया, “बीमा कंपनियां हर 100 रुपये में से लगभग 60 रुपये इलाज पर खर्च करती हैं और बाकी 40 रुपये अन्य चीजों में चले जाते हैं।”

बीमा कंपनियों का कहना है कि इलाज महंगा होने की वजह CPI महंगाई और नई तकनीकें हैं। प्रीमियम बढ़ने का कारण भी यही महंगाई और अस्पतालों की अतिरिक्त सामग्री की कीमतें हैं। एक बीमा अधिकारी ने बताया, “महामारी के बाद इलाज की महंगाई दोगुनी हो गई है। अस्पतालों ने सफाई और सुरक्षा के लिए अतिरिक्त चार्ज लगाए थे, जो जरूरी थे। लेकिन अब भी ये चार्ज बीमाधारकों के बिल में शामिल हैं। इसके अलावा कई प्रशासनिक खर्च भी मरीजों के बिल में जुड़ जाते हैं, जिससे बिल और बढ़ जाते हैं और बीमा कंपनियों की लागत भी बढ़ जाती है।”

Policybazaar के आंकड़ों के अनुसार, कुछ बड़े इलाजों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए, हार्ट ट्रांसप्लांट की कीमत 2023 में लगभग 30 लाख थी, जो 2024 में 34 लाख हो गई। लीवर सिरोसिस के इलाज की कीमत भी 21 लाख से बढ़कर 24 लाख हो गई। अस्पतालों का कहना है कि उच्च लागत की वजह महंगे उपकरण और नई तकनीकें हैं, जैसे कि कैटारक्ट सर्जरी में फेम्टो-लेजर तकनीक का इस्तेमाल।

अस्पतालों का कहना है कि उन्हें अभी भी लाभ कम हो रहा है। एक अधिकारी ने कहा, “स्वास्थ्य सेवा में निवेश बहुत ज्यादा होता है और फायदा कम है। अस्पताल बनाने और चलाने में 10–15 साल लग जाते हैं। यहां तक कि टॉप 100 अस्पताल भी मिलकर 30,000–40,000 से ज्यादा बिस्तर नहीं बना सकते। कीमत इसलिए बढ़ रही है क्योंकि इलाज करने की लागत बढ़ गई है और अस्पताल अब नए, महंगे तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, अब कैटारक्ट सर्जरी में फाकोएमल्सिफिकेशन के बजाय फेम्टो-लेजर तकनीक इस्तेमाल हो रही है, जो ज्यादा महंगी है।”

भारत में लागत और मरीज की क्षमता

भारत में इलाज की कीमतें दुनिया के मुकाबले किफायती हैं। उदाहरण के लिए, हार्ट बायपास की लागत ₹4.35-₹5.22 लाख है, जो तीसरी सबसे सस्ती है। लेकिन चुनौती मरीजों की भुगतान क्षमता है क्योंकि प्रति व्यक्ति आय ₹2.61 लाख के आसपास है।

बीमा कंपनियों का कहना है कि प्रीमियम बढ़ने का कारण महंगाई और वितरण खर्च है। बीमा कंपनियों की 30–40% कमाई कमीशन और ग्राहक अधिग्रहण पर चली जाती है। एक अधिकारी के अनुसार, “मरीजों के लिए मेडिकल महंगाई का मतलब यह होता है कि उनका प्रीमियम बढ़ता है, जरूरी नहीं कि अस्पताल के बिल बढ़ें।” उन्होंने बताया कि बीमा कंपनियां अपनी कमाई का 30–40% कमीशन और नए ग्राहक लाने पर खर्च कर देती हैं।

कुछ अस्पताल अधिकारियों का सुझाव है कि सिर्फ पारंपरिक बीमा पर ही निर्भर न रहें। उन्होंने कहा, “कई देशों में हेल्थ सेविंग अकाउंट्स का प्रयोग हो रहा है। अगर परिवार हर साल लगभग 25,000 रुपये प्रीमियम देने की बजाय यह पैसा बचत खाते में जमा करके ब्याज कमाए, तो वे अपने मेडिकल खर्चों के लिए लगभग 90% जरूरतों का बचाव कर सकते हैं और खर्च भी बहुत कम होगा।”

अस्पतालों का कहना है कि कैशलेस सुविधाएं मरीजों के लिए हमेशा आसान नहीं होती। अक्सर आपात स्थिति में परिवार पैसा खुद खर्च कर देता है, क्योंकि कैशलेस प्रक्रिया लंबी और जटिल होती है। फिर भी, IRDAI की वार्षिक रिपोर्ट (वित्तीय वर्ष 2024) के अनुसार, सामान्य और स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के तहत किए गए दावे लगभग 76,160 करोड़ रुपये थे, जो पिछले साल की तुलना में लगभग 18% ज्यादा हैं।

अस्पताल विशेषज्ञों का कहना है कि अस्पताल प्रणाली में कुछ कमजोरियां हैं, जो खर्च बढ़ाती हैं। उदाहरण के लिए, अस्पताल लगभग 6% का पैसा GST रिफंड न मिलने की वजह से खो देते हैं। इसके अलावा, डॉक्टर और नर्स की ट्रेनिंग, छोटे शहरों में स्टाफ की कमी और मेडिकल शिक्षा की लागत भी बिल बढ़ाती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि मरीजों को सशक्त बनाना और अस्पतालों की गुणवत्ता पर ध्यान देना खर्च कम करने में मदद कर सकता है।

एक अधिकारी ने कहा, “देश में 10% से भी कम अस्पताल NABH मान्यता वाले हैं। जो अस्पताल मान्यता प्राप्त हैं, उन्हें कम ब्याज दर क्यों न मिलें और मरीज आसानी से जान सकें कि ये भरोसेमंद अस्पताल हैं। कीमतें रोकने से ज्यादा, क्वालिटी और मरीजों की जागरुकता खर्च कम करने में मदद कर सकती है।”

Bharat Baani Bureau

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