11 फरवरी 2025 (भारत बानी ब्यूरो ) – दिल्ली विधानसभा चुनाव से कई बातों का खुलासा हुआ है. अव्वल यह कि एकजुट हुए बिना विपक्ष का भाजपा से मुकाबला आसान नहीं है. दूसरा कि विपक्ष लाख कोशिश करे, उसका एकजुट होना या बने रहना असंभव है. सबसे बड़ा संदेश यह है कि जिस तरह भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व मिटाने पर आमादा है, अब कांग्रेस भी उसी राह पर चल पड़ी है. लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों ने एकजुट होकर मुकाबले की रणनीति पर तो काम किया, पर उसके बाद एकता की धज्जियां भी विपक्ष ने उड़ा दीं. हरियाणा और दिल्ली विधानसभा चुनाव में विपक्ष की फूट साफ-साफ दिखी. आश्चर्य यह कि विपक्षी गठबंधन इंडिया का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने ही विपक्षी एकता तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आम आदमी पार्टी (AAP) को भाजपा की तरह अपना विरोधी मान कर कांग्रेस ने हरियाणा में अपना बेड़ा गर्क किया तो दिल्ली में आप की खाट खड़ी कर दी. अब बिहार में भी कांग्रेस इसी अंदाज में चलने के इशारे कर रही है. पश्चिम बंगाल में टीएमसी से कांग्रेस का टकराव लोकसभा चुनाव से ही बना हुआ है. यानी देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने राज्यों में क्षेत्रीय दलों को खत्म करने का बीड़ा उठाया है तो सबसे बड़ी और गौरवशाली अतीत वाली पार्टी कांग्रेस भी उसी राह पर चलती दिख रही है.
बिहार में जेडीयू ही रहा है बड़ा भाई
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कई बार यह बात कह चुके हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों के दिन लद गए. ऐसा कहने का उनका आशय बिहार में भाजपा की सहयोगी बड़ी पार्टी जेडीयू से रहा है. इसी बात से खफा होकर जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने 2022 में भाजपा का साथ छोड़ दिया था. उन्होंने न सिर्फ साथ छोड़ा, बल्कि भाजपा को सबक सिखाने के लिए विपक्षी दलों का गठबंधन भी बनाया. यह अलग बात है कि विपक्षी गठबंधन का सूत्रधार होने के बावजूद उन्हें उसका लाभ नहीं मिला और लोकसभा चुनाव से छह महीने पहले ही भाजपा के शरण में जाना पड़ा. भाजपा ने भी बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी जेडीयू को रणनीतिक ढंग से पूर्व की तरह जेडीयू की बड़े भाई की भूमिका बरकरार रखी. जेडीयू की बड़े भाई की भूमिका भी 2005 से बिहार में बरकरार है.
विपक्ष में आरजेडी की है मोनोपोली
जेडीयू की तरह ही लालू यादव और तेजस्वी यादव की राजद की मोनोपोली रही है. आररजेडी भी महागठबंधन बना कर बिहार में स्वघोषित बड़ा भाई बना हुआ है.यानी महागठबंधन में उसकी मोनोपोली रही है. राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस बिहार में आरजेडी की चेरी बनती रही है. कांग्रेस का हाल यह है कि लालू यादव के इशारे पर ही बिहार में उसके अध्यक्ष या चुनावों में उम्मीदवार तय होते रहे हैं. यह बात खुद लालू प्रसाद यादव कांग्रेस नेताओं के सामने कहते रहे हैं. कांग्रेस के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश कुमार सिंह को लालू समर्थक माना जाता है. लालू कहते भी हैं कि उन्हें राज्यसभा भेजने का फैसला सोनिया गांधी ने उनके ही कहने पर किया. कांग्रेस अब अपनी इस परजीवी छवि से उबरना चाहती है. पखवाड़े भर के अंतराल पर राहुल गांधी ने दो बार बिहार के हाल में दौरे किए. दोनों ही बार उनके तेवर से लगा कि वे अब बिहार में कांग्रेस को आरजेडी का पिछलग्गू बना कर नहीं रखना चाहते. राहुल दलित और मुसलमानों के सहारे बिहार में कांग्रेस को धार देना चाहते हैं. उनके इरादे से यही लगता है कि कांग्रेस बिहार में हरियाणा और दिल्ली की तरह ही अकेले चलने का फैसला कर चुकी है.
कांग्रेस का साथ RJD की मजबूरी है
आरजेडी को भी हरियाणा और दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे देख कर अब यह बात समझ में आ गई होगी कि कांग्रेस से पंगा लेना अहितकर साबित हो सकता है. कांग्रेस चुनाव जीतने की स्थिति में भले न हो, पर महागठबंधन के घटक दलों को हराने का माद्दा तो उसमें है ही. जिस तरह कांग्रेस संविधान, अंबेडकर और दलित को लेकर मुखर है, उससे बिहार के तकरीबन 16 प्रतिशत दलित आबादी का खासा हिस्सा उसके प्रभाव में तो आने की संभावना है. मुसलमानों की तो पहले से ही कांग्रेस हितैषी रही है. बिहार में मुस्लिम आबादी भी करीब 17-18 प्रतिशत है. आरजेडी ने मुस्लिम वोटों के लिए पहले से ही यादव बिरादरी के साथ समीकरण बनाया है. मुस्लिम और दलित वोटों को ध्यान में रख कर ही जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर अपनी पूरी रणनीति बनाने में लगे हुए हैं. इसमें कांग्रेस ने भी कुछ झटक लिया तो आरजेडी की परेशानी बढ़नी तय है.
दिल्ली ने BJP का मनोबल बढ़ाया है
एनडीए की बात करें तो हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जिस तरह का प्रदर्शन किया है, उससे उसका मनोबल बढ़ा है. लोकसभा चुनाव में भाजपा थोड़ी कमजोर पड़ी तो सरकार बनाने के लिए उसे क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेना पड़ा. पर अब स्थिति बदलती दिख रही है. भाजपा के सहयोगी क्षेत्रीय दल तो उसकी स्थिति देख कर अब सरेंडर की मुद्रा में दिखते हैं. जेडीयू के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा कहते हैं कि बिहार में छोटे और बड़े भाई के रुतबे का कोई सवाल नहीं है, विधानसभा चुनाव में बेहतर परफॉर्मेंस ही एनडीए की प्राथमिकता है. आमतौर पर हर बार चुनाव से पहले जेडीयू सीटों के लिए भाजपा पर पहले से ही दबाव बनाना शुरू कर देता था. यह पहली बार है, जब सीटों के बजाय जेडीयू के शीर्ष नेता परफार्मेंस की बात कर रहे हैं. दिल्ली की जीत पर जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और चिराग पासवान ऐसे इतरा रहे हैं, जैसे खुद ही कमाल कर दिया हो. इनका मानस समझने की कोशिश करें तो साफ समझ में आएगा कि भाजपा के सहयोगी राज्यों में उसकी बढ़त देख समर्पण की मुद्रा में हैं.
सारांश
दिल्ली चुनाव ने स्पष्ट संदेश दिया है कि बीजेपी और कांग्रेस अपनी ही आंतरिक खींचतान से जूझ रही हैं। इस स्थिति का असर बिहार सहित अन्य राज्यों की राजनीति पर भी पड़ सकता है। अब बिहार में राजनीतिक समीकरण बदलने की संभावनाएं चर्चा में हैं।