09 दिसंबर 2025 (भारत बानी ब्यूरो ) : दुनिया जब दूसरी बार विश्व युद्ध की आग में जल रही थी, जब चारों तरफ बमों की गूंज, लाशों के ढेर और चीखों की आवाजें थीं… उसी दौर में भारतीय मूल की एक लड़की नाजियों के दिल में घुसकर उन्हें लगातार चकमा दे रही थी. वह सिर्फ खूबसूरत नहीं थी, बल्कि खामोशी से दुश्मन को तबाह कर देने की कला में माहिर थी. उसका नाम था नूर इनायत खान. वह सिर्फ एक जासूस नहीं, बल्कि इतिहास के सबसे बहादुर किरदारों में से एक थीं. वह मैसूर के शेर टीपू सुल्तान की वंशज थीं, जिनकी रगों में आज़ादी और विद्रोह खून बनकर बहता था.

नूर का जन्म 1914 में रूस की राजधानी मॉस्को में हुआ था. उनके पिता हज़रत इनायत खान भारत के एक बड़े सूफी संत और टीपू सुल्तान के खानदान आते थे. वहीं उनकी मां अमेरिका से थीं. नूर की परवरिश फ्रांस में हुई. उनका बचपन संगीत, किताबों और आध्यात्मिक माहौल में बीता. वह स्वभाव से बेहद शांत, संवेदनशील और दयालु थीं. कोई सोच भी नहीं सकता था कि यही लड़की एक दिन दुनिया की सबसे खतरनाक जंग में हिटलर की सेना को खुलेआम चुनौती देगी.

शांत सी दिखने वाली लड़की कैसे बनी खतरनाक जासूस?

जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ और नाजी सेना ने फ्रांस पर हमला किया, तब नूर का परिवार पेरिस छोड़कर मजबूरी में ब्रिटेन आ गया. यही वह मोड़ था, जिसने नूर की पूरी ज़िंदगी बदल दी. वह उस देश का कर्ज चुकाना चाहती थीं जिसने उन्हें शरण दी थी. साथ ही उनके मन में फासीवाद के खिलाफ गुस्सा भी पनप रहा था. इसी जज़्बे के साथ उन्होंने ब्रिटिश आर्मी में बतौर वॉलंटियर काम करना शुरू किया. धीरे-धीरे उनकी काबिलियत और साहस को देखकर उन्हें ब्रिटेन की सीक्रेट एजेंसी SOE यानी स्पेशल ऑपरेशंस एग्जीक्यूटिव के लिए चुन लिया गया.

यह वही एजेंसी थी जो दुश्मन के कब्जे वाले इलाकों में अपने जासूस भेजती थी. नूर को वायरलेस रेडियो ऑपरेटर बनाया गया. यह जिम्मेदारी सबसे खतरनाक मानी जाती थी, क्योंकि रेडियो सिग्नल पकड़े जाने पर सीधा मौत का रास्ता खुल जाता था. इसके बावजूद नूर ने बिना किसी डर के इस मिशन को स्वीकार कर लिया. साल 1943 में उन्हें फ्रांस भेजा गया, जहां हिटलर की सेना अपना सबसे खतरनाक रूप दिखा रही थी.

नाजियों की आंखों में कैसे झोंकी धूल?

अंधेरी रात में विमान से उन्हें फ्रांस में उतारा गया. वहां से उन्होंने साइकिल पर करीब 15 किलोमीटर का सफर तय किया और फिर ट्रेन से 300 किलोमीटर दूर पेरिस पहुंचीं. अब उनकी नई पहचान थी ‘जां मेरी रेनिया’. उन्होंने खुद को पूरी तरह फ्रेंच महिला की तरह ढाल लिया था. उनकी भाषा, लहजा, पहनावा, रहन-सहन… सब कुछ बिल्कुल स्थानीय लोगों जैसा था. कोई यह अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि यह लड़की दरअसल ब्रिटेन के लिए जासूसी कर रही है.

नूर पेरिस में रहकर नाजियों की नाक के नीचे से लगातार गुप्त सूचनाएं ब्रिटेन भेजती रहीं. एक के बाद एक उनके साथी पकड़े जाते गए, कई मारे गए, लेकिन नूर करीब 100 दिनों तक अकेले ही पूरे नेटवर्क को संभालती रहीं. यह उस दौर का रिकॉर्ड था. नाजी सेना समझ चुकी थी कि पेरिस में कोई बेहद शातिर रेडियो ऑपरेटर मौजूद है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि वह एक भारतीय मूल की युवा लड़की है.

किसकी जलन ने बिगाड़ दिया नूर का खेल?

आखिरकार अक्टूबर 1943 में नूर धोखे का शिकार हो गईं. यह धोखा दुश्मन ने नहीं, बल्कि अपनों में से ही किसी ने दिया. कहा जाता है कि नूर की एक साथी उनसे जलती थी. उनकी खूबसूरती, हिम्मत और कामयाबी उसे खटकती थी. उसी जलन में उस लड़की की बहन ने जर्मन एजेंटों को नूर की असली पहचान बता दी. एक छोटी सी जलन ने इतना बड़ा खेल बिगाड़ दिया.

जर्मन एजेंट पियर कारतू नूर को पकड़ने उनके अपार्टमेंट पहुंचा. लेकिन नूर ने आसानी से हार नहीं मानी. वह जर्मन एजेंटों से भिड़ गईं. पांच-छह ताकतवर सिपाहियों को उन्हें काबू करने में मशक्कत करनी पड़ी. जब पियर ने उनकी कलाई पकड़ी, तो नूर ने इतनी जोर से उसे दांतों से काटा कि उसकी कलाई से खून बहने लगा. उन्होंने उसे धक्का देकर गिरा दिया, लेकिन आखिरकार बंदूक के दम पर उन्हें पकड़ लिया गया.

जेल में कैसा था नूर का हाल?

गिरफ्तारी के बाद नूर को जर्मन सेना ने सबसे खतरनाक कैदियों की श्रेणी में डाल दिया. उन्हें एक भयानक जेल में भेजा गया, जहां उनके हाथ-पैर बेड़ियों से जकड़ दिए गए. वह न ठीक से खड़ी हो सकती थीं और न ही बैठ सकती थीं. उन्हें लगातार भूखा रखा गया, पीटा गया, दिन-रात पूछताछ की गई, लेकिन उन्होंने एक भी राज नहीं खोला. न तो अपने मिशन का, न अपने साथियों का.

नूर ने जेल से भागने की कई कोशिशें भी कीं. एक बार वह नहाने के बहाने खिड़की से कूदकर भागीं, लेकिन फिर पकड़ ली गईं. दूसरी बार वह जेल की छत तक पहुंच गई थीं, लेकिन तभी उस इलाके में ब्रिटिश विमानों ने बमबारी कर दी, जिससे वह ज्यादा दूर नहीं जा सकीं. हर बार उनकी कोशिशों ने जर्मन सेना को और डरा दिया.

आखिरकार 6 नवंबर 1943 को उन्हें फ्रांस से जर्मनी भेज दिया गया. यहां उन्हें और भी ज्यादा यातनाएं दी गईं. उन्हें दिनों तक भूखा रखा गया, बेरहमी से पीटा गया, मानसिक रूप से तोड़ने की कोशिश की गई. लेकिन नूर का हौसला नहीं टूटा. वह कमजोर जरूर हो गई थीं, लेकिन उनकी आत्मा अडिग रही.

अंत में जर्मन सेना ने उन्हें गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया. उस वक्त उनकी उम्र महज 30 साल थी. बताया जाता है कि मरते वक्त उनके मुंह से सिर्फ एक शब्द निकला… Liberté, यानी आज़ादी.

नूर की शहादत को कैसे याद करते हैं ब्रिटेन-फ्रांस?

नूर इनायत खान की शहादत के बाद दुनिया ने उन्हें वह सम्मान दिया, जिसकी वह हकदार थीं. 1949 में ब्रिटेन ने उन्हें अपना सर्वोच्च वीरता सम्मान जॉर्ज क्रॉस दिया. फ्रांस ने उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मान से नवाजा. 2014 में ब्रिटेन ने उनके नाम से डाक टिकट जारी किया. लंदन में आज उनकी प्रतिमा लगी है, जो हर आने-जाने वाले को उस भारतीय बेटी की बहादुरी की याद दिलाती है.

नूर इनायत खान सिर्फ एक जासूस नहीं थीं. वह एक सोच थीं, एक जज़्बा थीं, और यह सबक थीं कि ताकत सिर्फ हथियारों में नहीं होती, बल्कि हिम्मत में होती है. टीपू सुल्तान के खानदान की उस बेटी ने यह साबित कर दिया कि अगर इरादे मजबूत हों, तो एक अकेली लड़की भी हिटलर जैसी क्रूर ताकत को घुटनों पर ला सकती है. उनकी कहानी आज भी दुनिया को झकझोरती है और यह याद दिलाती है कि सच्चा साहस कभी मरता नहीं.

सारांश

टीपू सुल्तान के वंश से जुड़ी नूर इनायत ख़ान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन की ओर से स्पेशल ऑपरेशंस एक्ज़ीक्यूटिव (SOE) की जासूस थीं। उन्होंने नाज़ी जर्मनी के कब्जे वाले फ्रांस में महत्वपूर्ण मिशन पूरे किए। गिरफ्तारी के बाद भी उन्होंने नाज़ियों को कोई जानकारी नहीं दी। हिटलर की सेना द्वारा अत्याचार झेलने के बावजूद उन्होंने जीवन के आखिरी क्षण तक माफी नहीं मांगी और अपने सिद्धांतों पर कायम रहीं। उन्हें बाद में ब्रिटेन द्वारा बहादुरी के लिए “जॉर्ज क्रॉस” से सम्मानित किया गया।

Bharat Baani Bureau

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