26 नवंबर 2025 (भारत बानी ब्यूरो ) : चीन-जापान के बीच ताइवान का मामला इस वक्त गर्माया हुआ है. कुछ इस तरह से दोनों देश इस पर भिड़े हुए हैं कि लग रहा है कि एशिया में भी युद्ध की आहट आने लगी है. दिलचस्प ये है कि इस मामले में पहले से ही डोनाल्ड ट्रंप मध्यस्थता में जुटे हुए हैं. यही वजह है कि भ्रम की स्थिति बनी हुई है. हालिया जापान दौरे में ट्रंप ने नवनिर्वाचित पीएम ताकाइची की जमकर सराहना की थी लेकिन जैसे ताइवान के मसले पर चीन-जापान आमने-सामने आ गए, डोनाल्ड ट्रंप ताइवान का नाम तक लेने से बच रहे हैं.
सोमवार को शी जिनपिंग और डोनाल्ड ट्रंप के बीच हुई फोन पर बातचीत ने फिर एक बार इस बात का यकीन दिलाया कि ताइवान विवाद अब सिर्फ एशिया का मसला नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय सतर्कता का विषय बन चुका है. दोनों नेताओं ने पूर्व बुसान सम्मेलन में बनी सहमति दोहराई और कहा कि चीन-अमेरिका संबंध स्थिर और सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. उनकी बातचीत का केन्द्र बिंदु रहा- ताइवान.
ट्रंप-शी जिनपिंग की ताइवान पर बात
शी ने स्पष्ट किया कि ताइवान का चीन में लौटना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है. वही व्यवस्था जिसने 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तय हुई थी. ट्रंप ने भी इस बात को स्वीकार किया कि अमेरिका समझता है ताइवान चीन के लिए कितना अहम है, वहीं दूसरे विश्वयुद्ध में चीन की भूमिका को भी महत्वपूर्ण कहा. फिलहाल दुनियाभर की नजरें जापान की ओर हैं. हाल की तारीख में जापानी प्रधानमंत्री साने ताकाइची की सरकार ने ताइवान को लेकर तीखा रुख अपनाया, जिसे चीन और कई अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ बड़े खतरे के रूप में देख रहे हैं. चीनी मीडिया का कहना है कि ताइवान को सिर्फ एशियाई सुरक्षा मुद्दा बताकर सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद की व्यवस्था और वन-चाइना सिद्धांत को चुनौती दी जा रही है. वही वन चाइना पॉलिसी, जिसे अमेरिका ने भी 1979 में स्वीकार कर लिया लिखा.
चीन के लिए ट्रिगर प्वाइंट है ताइवान
ताइवान की वापसी केवल इतिहास या जमीन का मामला नहीं है. यह 1945 की उन सहमतियों का संरक्षक है, जिनसे युद्ध के बाद 80 से अधिक सालों तक एशिया-प्रशांत में शांति कायम रही. जापान इस मूलभूत व्यवस्था पर सवाल उठाकर उस प्वाइंट को दबा रहा है, जो चीन को भड़का चुका है. चीन अब खुलकर कह रहा है कि अगर जापान और ताइवान को हथियार बनाने वाले उसके समर्थक आगे बढ़ेंगे, तो उन्हें केवल राजनीतिक या आर्थिक दंड नहीं मिलेगा, बल्कि रणनीतिक और सैन्य जवाब भी मिलेगा. चीन ने अपनी परमाणु और बैलिस्टिक मिसाइल क्षमताओं को इतना बढ़ा लिया है कि अगर युद्ध की स्थिति बनी तो बैलेंस ऑफ पावर बड़ी तेजी से बदल सकता है.
खुली धमकियों का दौर शुरू
जब से जापानी पीएम ने कमान संभाली है, वे संसद से लेकर संसद के बाहर तक ताइवान को लेकर बयानबाजी कर रही हैं. इसकी वजह से स्थिति ये बनी है कि चीन खुले तौर पर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है, जो कूटनीतिक लिहाज से डराने वाले हैं. एक तरफ चीन ने कहा कि ताइवान को जिसने चीन से अलग माना, उसकी गर्दन काट दी जाएगी. वहीं चीन के स्टेट मीडिया Gunacha की ओर से कहा गया कि जापान को खत्म करना चीन के 72 बमों का खेल है बस. वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक चीन की रॉकेट फोर्स और इंटरमीडिएट रेंज की मिसाइलें भी तैनात हो चुकी हैं, जो 200 किलोटन वॉरहेड क्षमता रखती हैं. ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर जापान ये समझने की गलती करता है कि वो अमेरिका के दम पर ताइवान के मसले पर उसे उकसाएगा, तो ये उसकी गलती है. कहीं न कहीं चीन का ये रवैया ट्रंप से शी जिनपिंग की बातचीत के बाद ही बदला है.
क्या अमेरिका- चीन में हुई डील?
आज की दुनिया में जब ताइवान, जापान, चीन, अमेरिका और कई अन्य देश एक-दूसरे के साथ आर्थिक, सैन्य और राजनयिक टकराव के बीच हैं, तो चीन-अमेरिका कनेक्शन की अहमियत बढ़ गई है. वैसे भी वो अमेरिका ही था, जिसकने रूस की ताकत को बैलेंस करने के लिए वन चाइना पॉलिसी को न सिर्फ मान्यता दी, ताइवान से अपने राजनयिक रिश्ते भी तोड़े थे. अब ये मुद्दा चीन और अमेरिका के लिए नहीं पूरी अंतरराष्ट्रीय शांति व्यवस्था के लिए जरूरी लग रहा है. इसमें किसी भी तरह का सैन्य कार्रवाई इतिहास और भविष्य दोनों को बदल सकती है.
सारांश
चीन और जापान के बीच तनाव तेजी से बढ़ गया है। एक चीनी थिंक-टैंक से जुड़े विशेषज्ञ ने जापान को “72 बम गिराने” जैसी धमकी दी, जिससे हालात और गंभीर हो गए। दूसरी ओर, ताइवान मुद्दे पर यह चर्चा भी तेज है कि क्या चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और डोनाल्ड ट्रंप के बीच किसी तरह की गुप्त समझ या डील हो रही है। इन घटनाओं ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर बड़ी चिंता पैदा कर दी है।
